पचमढ़ी में खिले नीलकुरिंजी के जैसे फूल, वैज्ञानिक बता रहे स्ट्रोबिलान्थस कलोसा नाम

पचमढ़ी में इन दिनों 12 साल में खिलने वाले नीलकुरिंजी की तरह खिल रहे फूल सैलानियाें के आकर्षण का केंद्र बने हैं। नीले रंग के इन फूलों ने सतपुड़ा की वादियों सुंदरता और बढ़ा दी है। यह फूल नीलकुरिंजी नहीं है हालांकि उसी प्रजाति का है। इसका वैज्ञानिक नाम स्ट्रोबिलान्थस कलोसा है। स्थानीय भाषा में इसे कार्वी कहते हैं।
स्ट्रोबिलान्थस कलोसा का फूल खिलते ही तितलियों और मधुमक्खियों का झुंड लग जाता है। औषधीय गुण के कारण इसका शहद 15 वर्षों तक खराब नहीं होता है।
राेचक बात: इसकी खोज पहली बार 19वी शताब्दी में मुंबई के एक ब्रिटिश निवासी नीस ने की थी। ये महाराष्ट्र, मप्र, गुजरात और कोंकण और उत्तरी कैनेडा में मिलता है।
यह स्ट्रोबिलैंथ्स प्रजाति का पौधा है
राज्य वन अनुसंधान संस्थान जबलपुर की सीनियर रिसर्च ऑफिसर डॉ. अंजना राजपूत बताती हैं कि स्ट्रोबिलान्थस कलोसा के पाैधे में 7 साल में फूल आता है। यह स्ट्रोबिलैंथ्स प्रजाति का पौधा है।हर पौधा अपने जीवनकाल में सिर्फ एक बार ही खिलता है और फूल खिलने के बाद खत्म हो जाता है। बीज को फिर से पौधा बनने में और बड़ा होने में करीब 7 वर्ष लग जाते हैं।
यह भी जाने : पर्यावरणविद अशोक बिसवाल के मुताबिक यह एक बारहमासी पाैधा है। इसकी कई चतुर्भुज शाखाएं आधार से गोलार्द्ध में फैलती हैं। तीव्र पत्ते, कड़े बालों के साथ कवर रहते हैं। नीली-बैंगनी फूल-पत्ती धुरी में होते हैं। फूल शंकु के आकार के होते हैं, 5 पंखुड़ियों के साथ। पंखुड़ियां कुरकुरी और गोल होती हैं। 7 साल में एक बार फूल लगता है। यह काफी सुंदर होता है।
भारत में है 146 प्रजाति
- 450 प्रजातियां पूरी दुनिया में स्ट्रोबिलैंथ्स कलोसा की।
- 146 प्रजातियां भारत में मिलती हैं
- 43 प्रजातियां केवल केरल मेें ही।
- 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी ने 15 अगस्त काे लालकिले से दिए भाषण में भी नीलकुरिंजी के फूल का जिक्र किया था। इसके बाद लाखाें लाेग इस फूल को देखने केरल पहुंचे थे।
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