लाॅकडाउन में 15 प्रतिशत बढ़े मनो रोगी एंग्जाइटी और डिप्रेशन के शिकार ज्यादा

करीब 71 दिनों के लॉकडाउन ने कोरोना से तो बचाया लेकिन बड़ी संख्या में लोग अनचाहे ही मानसिक रोगी बन गए। लॉकडाउन की सख्ती में बड़ी संख्या में लोग तब इलाज कराने डॉक्टर के पास नहीं जा सके, लेकिन अब जब वे इलाज के लिए पहुँच रहे हैं तो मनोचिकित्सकों के यहाँ नए मरीजों की कतार लगी है। कोरोना का भय लोगों के दिल-दिमाग में इस तरह घर कर सकता है कि वे मानसिक रोग के शिकार हों, सहज विश्वास करना मुश्किल ही है।
इन 71 दिनों में घराें में रहे लोग जिनमें 50 साल से कम उम्र वालों की संख्या ज्यादा है, वे लंबे समय तक एंग्जाइटी होने के बाद डिप्रेशन के शिकार हुए, इनमें से कुछ का मानसिक संतुलन भी िबगड़ा है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में मनोचिकित्सक के पास पहुँचने वाले मरीजों में ऐसे मरीजों की संख्या 15 प्रतिशत है। कुछ मामले शराब न मिलने के कारण डिप्रेशन या एग्रेसिव होने के भी आए हैं।
लॉकडाउन खुलने के बाद बढ़े मरीज
मेडिकल कालेज के वरिष्ठ मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. ओपी रायचंदानी का कहना है कि लॉकडाउन खुलने के बाद ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है। जो मरीज आ रहे हैं उनमें ज्यादातर की हिस्ट्री 4 से 10 दिन पुरानी है। नए मरीजों में ज्यादातर को घबराहट, बेचैनी की शिकायत रही जिसका मुख्य कारण लॉकडाउन के दौरान खालीपन है। मेडिकल कालेज में मानसिक रोग विभाग की ओपीडी में 80 से 100 मरीज इलाज कराने पहुँच रहे हैं जिनमें नए मरीजों की संख्या ज्यादा है। 10 से 15 दिन की एंग्जाइटी के बाद डिप्रेशन शुरू होता है, जिसमें मरीज अकेले गुमसुम रहना ज्यादा पसंद करता है। कुछ मरीज ज्यादा और बहकी बातें करने, चिड़चिड़ाहट होने पर परिजनों द्वारा लाए जा रहे हैं जो कि मानसिक संतुलन िबगड़ने की निशानी है।
शराब छूटी, कुछ डिप्रेशन में
इस लॉकडाउन में शराब न मिलने से इसका रोज सेवन करने वाले मरीजों को एक्यूट विड्रॉल सिंड्रोम कहा जाता है, ऐसे मरीजों को कुछ दिन तक शराब नहीं मिलने पर बेहोशी आने की परेशानी वाले मरीज आए, वहीं कुछेक ऐसे भी थे जोकि अवसाद और असामान्य हुए। लेकिन यह लॉकडाउन कम शराब पीने वालों के लिए उपयोगी रहा, कई ऐसे प्रसंग हैं जिसमें लोगाें की शराब पीने की चाह खत्म हुई।
कमरे में बंद हुआ सिपाही
डॉ. कुररिया बताते हैं कि कोरोना का डर किस हद तक लोगों के दिमाग पर हावी रहा, इसकी बानगी पड़ोसी िजले में पदस्थ एक पुलिस कर्मी है। यह कोरोना और मौत से इस कदर डरा कि बिना सूचना दिए यहाँ अपने शहर में आ गया है और खुद को घर में अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलता था। परिजनों ने उसे दिखाया तो काउंसलिंग और दवाओं से वह सामान्य हुआ।
काेरोना की चिंता से अवसाद
मानसिक रोग विशेषज्ञ तथा मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. रत्नेश कुररिया ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में रहे, वहाँ कोरोना बीमारी की खबरों से कुछ इस कदर चिंतित हुए कि उनमें मौत का भय बैठ गया। कुछ मरीज ऐसे भी आए जो मौत के डर से घर से बाहर ही नहीं निकल रहे थे, परिवार के सदस्यों से बातचीत कम कर दी थी। शुरूआती दौर में एंग्जाइटी (घबराहट) रही जोकि 15-20 दिन बाद डिप्रेशन में बदल गई। डिप्रेशन के शिकार हुए मरीज अकेले उदास रहने लगे, परिजन जब ऐसे मरीजों को लाए तो काउंसलिंग के दौरान उन्होंने मौत को लेकर ज्यादा बात की। मानसिक असंतुलन वाले नए मरीज भी सामने आए हैं, जोकि लॉकडाउन के दौरान एकांकी के साथ ही कोराेना के डर से असामान्य व्यवहार और बातें करने लगे थे।
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