खेतों में बिना पराली जलाए सीधे बोवनी; वैज्ञानिक बोले- नई तकनीक से पानी, ईंधन और बिजली की होगी बचत, लागत भी घटेगी

खेती की लागत घटाने और पर्यावरण के लिए संकट खड़ा करने वाली पराली जलाने जैसी समस्या का समाधान करते हुए भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान (आईआईएसएस) ने कंजर्वेशन एग्रीकल्चर (सीए) का नई तकनीक विकसित करने में सफलता पाई है। इस तकनीक में बार बार खेत में जुताई करने और पलेवा लगाने की जरूरत नहीं होगी और न ही फसल अवशेष को जलाकर नष्ट करने की जरूरत है। इस मॉडल में खेत की मिट्‌टी को बार-बार डिस्टर्ब किए बिना सिर्फ बोवनी वाली जगह पर सीडिंग की जाती है। इसके लिए पुरानी मशीनों के बजाए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित हैपीसीडर मशीन को इस्तेमाल में लाया गया है।

दावा : कंजर्वेशन एग्रीकल्चर की फसल ज्यादा उन्नत और हेल्दी आई
वैज्ञानिकों के मुताबिक अंकुरण के वक्त नई फसल कमजोर दिखती है, लेकिन जैसे-जैसे फसल बड़ी होती है, वैसे-वैसे पुरानी फसल के अवशेष सड़कर प्राकृतिक खाद में बदलने लगते हैं। डेढ़ माह में ये अवशेष खत्म हो जाते हैं। नबीबाग स्थित भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान में मक्का, बाजरा और सोयाबीन की फसल के बाद खाली खेतों में बिना जुताई और पलेवा के गेहूं और चने की बोबनी कर फसल उगाने में सफलता पा ली है। प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर डॉ. एके विश्वास ने बताया कि एक ही खेत को दो हिस्सों में बांटकर एक में कंजर्वेशन एग्रीकल्चर और दूसरे में जुताई कर पुराने परंपरागत तरीके से भी फसल की बोवनी की गई है। ताकि दोनों में तुलनात्मक अंतर को किसानों को समझाया जा सके।

जमीन की मिट्‌टी पलटे बिना ही बोवनी संभव
अभी जुताई के लिए कल्टीवेटर, और बोबनी के लिए सीड ड्रिलर (बोवनी मशीन) का इस्तेमाल किया जाता है। इन दोनों मशीनों में मोडिफिकेशन कर या हैपीसीडर मशीन के इस्तेमाल से खेत की जमीन के पलटे बिना ही बोवनी संभव है।

वैज्ञानिकों को गेहूं और चने की फसल उगाने में मिली सफलता
15 जिलों में बढ़ा पराली और गेहूं के अवशेष जलाने का ट्रेंड

मप्र में 15 जिलों में 5 सालों से धान की फसल के बाद पराली और गेहूं की नरवाई जलाने का ट्रेंड बढ़ रहा है। इनमें होशंगाबाद, हरदा, रायसेन, जबलपुर, विदिशा, भोपाल, सीहोर, होशंगाबाद, ग्वालियर, दतिया, श्योपुर, मुरैना, गुना, सिवनी और सतना जिला शामिल हैं। आईआईएसएस ने प्रदेश में पिछले पांच साल की सैटेलाइट इमेजरी से खेतों में आग की घटनाओं का डेटा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है।

प्रति एकड़ 4 हजार रुपए तक कम हो जाएगी लागत
दावा है कि कंजर्वेशन एग्रीकल्चर को अपनाने से किसानों को शुरुआत में मशीनें बदलने पर खर्च करना पड़ेगा। इसके बाद प्रति एकड़ 4 हजार रुपए तक तक लागत घट जाएगी। पलेवा की जरूरत नहीं पड़ने से पानी, बिजली और डीजल की बचत होगी। आईआईएसएस ने अपने फॉर्म हाउस में इस तकनीक से गेहूं की लागत में प्रति हेक्टेयर 15 हजार और सोयाबीन की लागत में प्रति हेक्टेयर 8 हजार तक कम करने में सफलता पाई है।

परंपरागत तरीके छोड़कर कंजर्वेशन एग्रीकल्चर को अपनाना होगा
इस तकनीक से खेती में पानी, ईंधन, बिजली सभी की बचत होगी। फसल चक्र अपनाकर किसान कम लागत में उन्नत उपज पैदा कर सकता है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को देखते हुए खेती में परंपरागत तरीके छोड़कर कंजर्वेशन एग्रीकल्चर को अपनाना पड़ेगा।
डॉ. अशोक पात्रा, डायरेक्टर आईआईएसएस भोपाल



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इन दोनों मशीनों में मोडिफिकेशन कर या हैपीसीडर मशीन के इस्तेमाल से खेत की जमीन के पलटे बिना ही बोवनी संभव है।


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