सांकेतिक रूप से मनाया जाएगा गोटमार मेला, लोगों को आने से रोकने के लिए लगाया जा सकता है 18 और 19 अगस्त को लॉकडाउन

कोरोना संकट के चलते आगामी बुधवार 19 अगस्त को होने वाले गोटमार मेले का स्वरूप इस बार बदला-बदला रहेगा। मेले के दौरान लगने वाले बाजार और अन्य सभी गतिविधियां स्थगित रहेगी। गोटमार मेले के आयोजन में सावरगांव स्थित कावले के मकान में झंडे का पूजन होगा और पांच लोग आपसी सहमति से इस झंडे को मंदिर में लाकर चढ़ा देंगे। यहां सीमित लोगों की उपस्थिति में पूजन और आरती के साथ गोटमार मेले का समापन हो जाएगा। फिलहाल इसके लिए सुबह दस बजे का समय तय किया गया है। लोगों को यहां आने से रोकने के लिए 18 और 19 अगस्त को लॉकडाउन लगाया जा सकता है।

गोटमार मेले की शुरुआत 17वीं सदी से मानी जाती है। महाराष्ट्र की सीमा से लगे पांर्ढुना हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पोला त्योहार के दूसरे दिन पांर्ढुना और सावरगांव के बीच बहने वाली जाम नदी में वृक्ष की स्थापना कर पूजा अर्चना की जाती है। नदी के दोनों ओर लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे को लहूलुहान कर देते हैं। इसमें कई लोगों की मौत भी हो चुकी है।

घर में ही कराई जाएगी पूजन
कलेक्टर सौरभ सुमन और एसपी विवेक अग्रवाल की मौजूदगी में आयोजित शांति समिति की बैठक में इस पर विचार किय गया। स्थानीय लोगों का कहना था कि कोरोना महामारी के चलते बीते चार महीने से कोई भी धार्मिक और सामाजिक उत्सव सामूहिक रूप से नहीं मनाए गए है। यदि गोटमार मेले का आंशिक आयोजन भी होता है तो बड़ी संख्या में बाहर से लोग आएंगे, जिससे शहर में कोरोना के संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाएगा। सभी लोगों ने पांढुर्ना क्षेत्रवासियों की भावना अनुरूप इस वर्ष पत्थरबाजी वाली गोटमार को स्थगित रखते हुए सांकेतिक रूप से गोटमार मेले का आयोजन करने और पूजन करने पर जोर दिया।

पोले में घरों व खेतों में होगा बैल पूजन
एक दिन पहले मंगलवार को होने वाले पोला पर्व का आयोजन भी सीमित रूप में होगा। इस बार कहीं भी बैलों की प्रदर्शनी और हाट बाजार नहीं लगेगी। एसपी विवेक अग्रवाल ने कहा है कि लोग अपने घरों और खेतों में ही पूजन कर पर्व मनाएंगे। पोले को लेकर कोई भी सामूहिक आयोजन नहीं होगा। प्रशासन मंगलवार और बुधवार को लॉक डाउन लगाने के संबंध में वरिष्ठ अधिकारियों से चर्चा कर निर्णय लेगा।
धार्मिक आस्था का प्रतीक
पांर्ढुना के बीच में नदी के उस पार सावरगांव और इस पार को पांढुर्ना कहा जाता है। अमावस्या को यहां पर बैलों का त्यौहार पोला धूमधाम से मनाया जाता है। इसके दूसरे दिन साबरगांव के सुरेश कावले परिवार की पुश्तैनी परम्परा स्वरूप जंगल से पलाश के पेड़ को काटकर घर पर लाने के बाद उस पेड़ की साज-सज्जा कर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर पूजन किया जाता है।

दिन भर चलते हैं पत्थर

ढोल-ढमाकों और पत्थरों की बरसात के बीच पांर्ढुना के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर पत्थर मारकर पीछे ढकेलने का प्रयास करते है। दोपहर बाद 3 से 4 के बीच पत्थरों की बारिश बढ़ जाती है। खिलाड़ी कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए वहां तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। इसे रोकने के लिए साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की बारिश कर देते हैं।
झंडा के कटते ही रुक जाती है पत्थरबाजी

शाम को पांर्ढुना पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी, झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं। जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके मेल-मिलाप करते हैं और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है। झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है।
गोटमार मेले की कहानी
मेले के आयोजन के संबंध में कई कहानियां और किवंदतियां हैं। इसमें सबसे प्रचलित और आम किवंदती ये है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांर्ढुना के किसी लड़के से प्रेम हो गया था। दोनों ने चोरी छिपे प्रेम विवाह कर लिया। पांर्ढुना का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था। उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था। जब लड़का लड़की को लेकर नदी से जा रहा था तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू किया। जानकारी मिलने पर पहुंचे पांर्ढुना पक्ष के लोगों ने भी जवाब में पथराव शुरू कर दिया। पांर्ढुना और सावरगां के बीच इस पत्थरों की बौछार से दोनों प्रेमियों की जाम नदी के बीच ही मौत हो गई।

प्रेमियों की याद में होता है मेला
दोनों प्रेमियों की मृत्यु के बाद दोनों पक्षों के लोगों को अपनी शर्मिंदगी का एहसास हुआ। दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर किले पर मां चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। इस घटना की याद में मां चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है।



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गोटमार मेले की शुरुआत 17वीं सदी से मानी जाती है। नदी के दोनों ओर लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे को लहूलुहान कर देते हैं।- फाइल फोटो


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