आत्मनिर्भर झाबुआ; बांस से दीये बना ऑनलाइन बेच रहे आदिवासी युवा, अब गांवों में लोगों को सिखाएंगे

जिले में आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काम कर रही संस्था शिवगंगा के नवाचार किया है। दिवाली के लिए बांस के सुंदर दीये बनाए जा रहे हैं। इस काम के लिए 30 युवाओं को ट्रेंड किया गया है। संस्था ने इनकी बिक्री के लिए पोर्टल बनाया है। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती वाले दिन से बुकिंग शुरू की। अब तक करीब 1 लाख रुपए के ऑर्डर बुक हो चुके हैं। इस साल दीपावली तक 9 हजार दीये बनाने का लक्ष्य रखा गया है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल, बेंगलुरू, नोएडा और दूसरे कई बड़े शहरों से ऑर्डर मिले हैं।
प्रोमो में मॉडल या शहरी चेहरे के बजाय स्थानीय झलक, नाम दिया बांबू दीया
धनुष और महुआ नाम से दो तरह के दीये बनाए जा रहे हैं। बांस के लैंप भी हैं। बिक्री के लिए जो प्रोमो बनाया, उसमें किसी मॉडल या शहरी चेहरे को लेने की बजाय संस्था से जुड़ी आदिवासी युवती को लिया गया। लता निनामा बांस से कलाकृतियों के निर्माण से जुड़ी रही हैं। उनका फोटो इस प्रोमो में है। संस्था वालों के अनुसार, हम चाहते थे कि प्रोमो में आदिवासी झलक दिखे। किसी और की फोटो की बजाय स्थानीय महिला का चेहरा सामने रखना तय किया। देश और दुनिया में इसके लिए बाजार तलाशना है, इसलिए इसका नाम बांबू दीया रखा गया।
पुणे से लाकर लगाया बांस, तीन साल बाद नहीं खरीदना पड़ेगा
शिवगंगा संस्था के महेश शर्मा ने बताया बांस के प्रोडक्ट बनाने के लिए कई सारी कार्यशालाएं की गई हैं। इनमें युवाओं को शामिल किया गया। इसका बाजार अच्छा है और खेती व मजदूरी से अलग ये उनकी आत्मनिर्भरता में बड़ी भूमिका निभाएगा। करीब 30 युवक प्रशिक्षित हो चुके हैं। फिलहाल बांस राजगढ़ से खरीदा है। हमने अपने लिए पुणे से बांस लाकर उगाया। इसे एक साल हुआ है। बांस उत्पाद बनाने लायक तीन साल में होता है। यहां जब बड़े हो जाएंगे तो खरीदना नहीं पड़ेंगे।
जैसे प्रोडक्ट बना रहे उसमें बिजली और कारखाने की जरूरत ही नहीं
संस्था से जुड़े कुमार हर्ष आईआईटी पास आउट हैं। उनकी तरह 40 स्टूडेंट इस मुहिम में मदद कर रहे हैं। ये ग्रामीण कार्य अनुभव के लिए यहां आए थे और बाद में शिवगंगा से जुड़ गए। कुमार ने बताया हमारे कई साथी विदेशों में हैं। यूएस, कनाडा, यूके, दुबई से उन्होंने अपने स्तर पर ऑर्डर बुक करवाए। हमारे पास अभी एक्सपोर्ट लाइसेंस नहीं है। इसकी प्रक्रिया शुरू कर दी है। उन्हें इस साल नहीं भेज पा रहे हैं। इस काम में जो भी फायदा होगा, ये उन युवाओं का ही होगा जो इन्हें बना रहे हैं। उन्हें ट्रेनिंग संस्था ने दी। वो अपने गांवों में लोगों को सिखाएंगे। जो प्रोडक्ट बना रहे हैं, उसमें बिजली या कारखाने की जरूरत नहीं।
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