जापान की मियावाकी पद्धति से शिप्रा तटों को हराभरा करेंगे, जिले में हरियाली बढ़ाई जाएगी

शिप्रा नदी के दोनों तटों को हराभरा करने और जिले में अंचल व शहरी क्षेत्रों में हरियाली बढ़ाने के लिए जापान की मियावाकी पद्धति अपनाई जाएगी।
शुक्रवार को इस संबंध में कलेक्टर आशीष सिंह ने अधिकारियों एवं अन्य पर्यावरणविदों की बृहस्पति भवन में बैठक लेकर कार्य योजना तैयार करने के निर्देश दिए। कहा कि कार्य योजना तैयार करते समय मास्टर प्लान का ध्यान रखें। नगरीय सीमा क्षेत्र में शिप्रा नदी के किनारे लगी जमीन के किसानों की सूची तैयार कर उन्हें पौधा रोपने के लिए जागृत करें। मियावाकी पद्धति में आमजन को जोडे़। ताकि जिलेभर में कम समय में बेहतर प्राकृतिक वन विकसित करने का काम शुरू हो सके। उन्होंने जिला पंचायत सीईओ अंकित अस्थाना को ग्रामीण क्षेत्रों में भी कार्य योजना बनाने को कहा। मनरेगा में भी इस संबंध में कार्रवाई करने के निर्देश दिए। बोले कि इससे शिप्रा के दोनों तटों को कैसे हरा-भरा किया जाएं। ताकि शिप्रा भविष्य में सदा प्रवाहमान बनी रहे और सिंहस्थ में बाहर से पानी न लाना पड़े। कलेक्टर ने कहा कि शहरी क्षेत्र में सभी बगीचों आदि स्थानों पर मियावाकी पद्धति को अपनाएं। जिससे घना जंगल बन सके। ये भी स्पष्ट किया कि इस संबंध में जल्द सात-आठ दिन के भीतर बैठक आयोजित की जाएगी। इसके बाद प्रत्येक माह के प्रथम शुक्रवार को बैठक में समीक्षा करेंगे। बैठक में नगर निगम आयुक्त क्षितिज सिंघल, यूडीए सीईओ एसएस रावत, रूपांतरण सामाजिक एवं जनकल्याण संस्था के राजीव पाहवा, अजय भातखंडे आदि उपस्थित थे।

क्या हैं मियावाकी पद्धति और फायदे
जापान के वनस्पति वैज्ञानिक डॉ.अकीरा मियावाकी ने मियावाकी पद्धति की शुरूआत की थी। इस पद्धति से बहुत कम समय में जंगलों को घने जंगलों में परिवर्तित किया जा सकता है। घरों के आगे अथवा पीछे खाली पड़े स्थान में छोटे बागानों में बदलकर शहरी वनीकरण की अवधारणा में क्रान्ति लाई जा सकती है। कम समय में बेहतर प्राकृतिक वन विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक में छोटे पौधों से लेकर बड़े पौधे एक ही स्थान पर रोपित कर सकते हैं। एक पौधे की आड़ में दूसरा पौधा जल्दी विकसित हो जाता है क्योंकि यह तकनीक पूरे इकोलॉजिकल सिस्टम पर निर्भर करती है। मियावाकी पद्धति में देशी प्रजाति के पौधे एक-दूसरे के समीप लगाए जाते हैं जो कम स्थान घेरने के साथ ही अन्य पौधों की वृद्धि में सहायक होते हैं।
इस पद्धति से जिले में देशी प्रजाति के पौधे लगाएं जाएंगे, जिससे कम जगह में पौधों की वृद्धि होगी और इनकी देखभाल भी कम समय करना पड़ेगी।



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